(पढ़ने का सही तरीका)
Best Motivational Story in Hindi
गुरुकुल में आज विद्यार्थियों का सैलाब उमड़ा हुआ था क्योंकि परीक्षा का परिणाम घोषित होने वाला था। कई छात्र प्रसन्न थे, तो कई मुँह लटकाएं हुए खड़े थे। उनकी प्रसन्नता और उदासी अकारण नहीं थी। जो छात्र उत्तीर्ण होते उन्हें अगली कक्षा में प्रवेश मिलना तय था। परन्तु अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को ना केवल गुरुकुल ही छोड़कर जाना पड़ता बल्कि आचार्यो की खरोकोटि भी सुननी पड़ती।
क्यों रे मुर्ख तू फिर अनुत्तीर्ण हो गया। तुझे मैंने समय रहते ही समझाया था ना कि अगर इस बार उत्तीर्ण ना हुआ तो गुरुकुल से बाहर निकाल दिया जायेगा, एक आचार्य एक किशोर विद्यार्थी को डाट रहे थे। और वो बेचारा चुपचाप सुन रहा था। डरते-डरते उसने गुरुकुल के प्रधान आचार्य से निवेदन किया। “आचार्यदेव मैंने अपनी तरफ से तो पूर्ण प्रयास किया था परन्तु निर्वल स्मरण शक्ति के कारन मैं जो कुछ भी याद करता हूँ उसे थोड़ी देर बाद ही भूल जाता हूँ। कृपा मुझे एक और अवसर देने कृपा करे।
यदि तुझे कुछ स्मरण ही नहीं रहता तो फिर तू कैसे उत्तीर्ण हो पाएगा और तेरे विद्या अध्ययन करने का भी क्या लाभ होगा। यदि देवता भी तुझपर कृपा करे ना तो भी तुझ जैसे जड़बुद्धि को उत्तीर्ण नहीं करा सकते। आचार्य ने अपने इन दिव्य शब्दों के साथ वरधराज की खूब बुराई की और उस पर चिल्लाते हुए उसे गुरुकुल से बाहर निकल जाने के लिए कहा।
कक्षा के सभी छात्र उस पर हंसने लगे। वह बेचारा भी अपना मुँह लटकाएं वहां से निकल गया। अनेको प्रश्नों उसके मन में उथल-पुथल मचाए हुए थे। कैसे वह अपने घर लौटेगा। माता-पिता को जाकर क्या उत्तर देगा। जब लोगों को पता चलेगा कि उसे गुरुकुल से निकाल दिया गया है तब वह कैसे उनका सामना कर पाएगा।
वरधराज का ह्रदय बैठा जा रहा था। आखिर उसने अपनी और से तो पूरी कोशिश की थी। रात-रातभर बैठकर पढाई की थी। लेकिन यदि फिर भी उत्तीर्ण ना हो सका तो वह क्या कर सकता था। वरधराज अब अपने गाँव के पास आ पहुंचा था। पर क्योंकि धुप बहुत तेज हो चली थी इसलिए उसने थोड़ा विश्राम करने का निश्चय किया। गर्मी की इस तप्ति दोपहर में सूरज की तेज रौशनी सबको जला रही थी। पर यहाँ धुप भी उसे बेहाल किए हुए थी। इसलिए एक कुएं के पास बैठकर उसने सत्तू खाने का निश्चय किया था जिसे वह गुरुकुल से लेकर चला था।
कुएं पर कई लोग खड़े थे। प्यास के मारे सब बेहाल थे। इसलिए बार बार डेंगची कुएं में डालते और सीधा जल निकालकर पीते। रस्सी के बार बार रगड़ने से कुएं के किनारे लगा पत्थर भी घिसने लग गया था। लोग जितना पानी निकालते पत्थर उतना ही घिसता जाता। वरधराज चुपचाप बैठा यह सब देख रहा था। अचानक ही उसके मन में एक विचार आया। वह सोचने लगा यदि केवल एक जोट के बनी रस्सी से कठोर पत्थर घिस सकता है तो यदि मैं परिश्रम करू तो क्या सफल नहीं हो सकता। आखिर दिमाग पत्थर से ज्यादा कठोर तो है नहीं।
वरधराज के मन में आशा की ज्योति जगमगा उठी। वह उठ खड़ा हुआ और तुरंत ही उसने निश्चय किया कि वह वापस गुरुकुल लौट जाएगा और फिर से अध्ययन आरम्भ करेगा। वह घर के समीप आ गया था पर घर ना जाकर वापस गुरुकुल लौट आया। उसके साथ उसे देखकर आश्चर्यचकित थे। उसकी बात सुनकर आचार्य ने पहले तो उसकी बहुत बुराई की पर फिर उसकी बहुत अनुनय विनय और प्रार्थना करने पर उसे गुरुकुल में दोबारा प्रवेश दे दिया।
इस बार वरधराज ने अध्ययन में रात दिन एक कर दिया और जब परीक्षा का परिणाम आया तो सम्पूर्ण गुरुकुल स्तब्ध था। वरधराज ना केवल उत्तीर्ण हुआ था बल्कि उसने सम्पूर्ण विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया था।
एक समय मुर्ख समझ जाने वाला यह वालक आगे चलकर संस्कृत का बहुत बड़ा विद्वान बना। उसने कई ग्रंथो की रचना की। छात्र उसका शिष्य बनना गौरव की बात समझते थे। पर यह सब किसी जादू से संभव नहीं हुआ था। कठोर परिश्रम और प्रवल इच्छाशक्ति के बल पर ही यह असंभव कार्य संभव हुआ था। कामियाब लोग गलत नहीं कहते। निश्चय ही संकल्प सफलता का प्रथम सूत्र है। सच्चा संकल्प एक ऐसा अश्त्र है जो कभी खाली नहीं जाता।
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