घमंडी कालिदास और सरस्वती माँ की कहानी, Ghamndi Kalidas aur Saraswati Maa Ki Kahani
घमंडी कालिदास और सरस्वती माँ
राजा भोज के दरवार मेंस कालिदास नामक एक महान और विद्वान कवि थे। उन्हें अपनी कला और ज्ञान का बहुत घमंड हो गया था। प्राचीन काल में यात्रा करने के लिए रेल अथवा बस जैसे कोई साधन नहीं होते थे। अधिकतर लोग एक गाँव से दूसरे गाँव जाने के लिए पैदल यात्रा करते थे।
एक बार कवि कालिदास भी यात्रा पर निकले। मार्ग में उन्हें बहुत प्यास लगी। वह अपने प्यास बुझाने के लिए मार्ग में किसी घर अथवा झोपड़ी को ढूंढ रहे थे जहाँ से पानी मांगकर वह अपनी प्यास बुझा सके। चलते-चलते उन्हें एक झोपड़ी दिखाई दिया। उस झोपड़ी के सामने जाकर कालिदास बोले, “माते, कोई है? मैं बहुत प्यासा हूँ। थोड़ा पानी पिला दीजिये। आपका भला होगा।”
उस घर में से माताजी आई और बोली, “मैं तुम्हें तो जानती भी नहीं। तुम पहले अपना परिचय दो। उसके बाद मैं तुमको पानी अवश्य पिला दूंगी।” कालिदास बोले, “कालिदास बोले, “माते, मैं एक पथिक हूँ। कृपया अब पानी पिला दीजिये।” माताजी बोले, “तुम पथिक कैसे हो सकते हो। इस संसार में केवल दो ही पथिक है। एक है सूर्य और दूसरा है चंद्रमा। वे कभी नहीं रुकते निरंतर चलते रहते हैं। तुम झूठ न बोलो, सत्य बताओ।”
इस बार कालिदास बोले, “मैं एक अतिथि हूँ। अब तो कृपया पानी पिला दीजिये।” माताजी बोले, “तुम अतिथि कैसे हो सकते हो। इस संसार में केवल दो ही तो अतिथि है। पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हे जाने में समय नहीं लगता। अब सत्य बताओ तुम कौन हो?”
कालिदास प्यास के कारण से तर्क और पराजित होकर हताश हो चुके थे। जैसे तैसे करके बोले, “मैं सहनशील हूँ। अब तो आप पानी पीला दे।” माताजी बोले, “तुम फिरसे झूठ बोल रहे हो। सहनशील तो केवल दो ही हैं। एक है धरती, जो की पापी और पुण्यवान दोनों का भार सहन करती है। धरती की छाती चीरकर बीच बोने पर वह अनाज का भंडार देती है। दूसरे सहनशील पेड़ है, जिनको पत्थर मारो तो भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील कैसे हो सकते हो। सच बताओ तुम कौन हो?”
कालिदास अब मूर्छा की स्तिथि में आ गए। और बोले, “मैं एक हठी हूँ।” माताजी बोले, “क्यों असत्य पर असत्य बोले जा रहे हो। संसार में हठी तो केवल दो ही है। पहला है नख और दूसरा है केश अर्थात बाल। उन्हें कितना भी काटो वे फिरसे निकल आते हैं। अब सच बताओ तुम कौन हो?”
अब कालिदास पराजित और अपमानित हो चुके थे। वह बोले, “मैं मुर्ख हूँ। माताजी बोले, “तुम मुर्ख कैसे हो सकते हो। मुर्ख तो दो ही है। पहला है राजा, जो बिना योग्यता पर भी सभी पर शासन करता है। और दूसरा है उसके दरवार का पंडित, जो राजा को खुश करने के उसके गलत बातों को भी सही सिद्ध करने की चेष्टा में ही लगा रहता है। और सदैव ही उसका झूठा गुणवान करता रहता है।”
अब कलिदासजी मूर्छित होकर उन माताजी की चरणों में गिर पड़े। और पानी की याचना करने लगे। माताजी ने कहा, उठो वत्स।” उनकी आवाज सुनकर कलिदासजी ने ऊपर देखा तो वहां साक्षात सरस्वती माता खड़ी थी। कलिदासजी ने उनके चरणों में प्रणाम किया।
सरस्वती माता ने कहा, “शिक्षा से ज्ञान आता है, अहंकार से नहीं। तुम्हें अपने ज्ञान और शिक्षा के बल पर मान और प्रतिष्ठा तो मिली, परन्तु तुमको अहंकार हो गया। इसलिए मुझे तुम्हारा घमंड तोड़ने के लिए, अहंकार नष्ट करने के लिए मुझे ये लीला करनी पड़ी।”
कालिदास को अपनी गलती समझमें आ गई और उन्होंने सवस्वती माता के चरणों में जाकर उनसे क्षमा मांगी। माता सरस्वती ने उन्हें आशीर्वाद दिया। कालिदास ने वहां भरपेट पानी पिया और वह अपनी यात्रा पर निकल पड़े।
शिक्षा – इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कभी ज्ञान पर घमंड नहीं करना चाहिए।
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