माँ के अनमोल आंसू Maa Ke Anmol Ansu Story in Hindi
माँ के अनमोल आंसू
गीता अपने जीवन के उतार-चढाव को लेकर काफी परेशान थी। विवाह के पश्चात् महीनों छोड़कर उसका सम्पूर्ण जीवन तनावपूर्ण ही व्यतीत हुआ। उसके माता-पिता उसका विवाह अति शीघ्र करना चाहते थे। उसने विवाह से इन्कार करते हुए माँ से कहा, “अभी में आगे पढ़ना चाहती हूँ, पढाई पूरी करके अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊं, तब मेरा विवाह कर दीजिएगा।”
माँ ने कहा, “मुझे जितना पढ़ाना था मैंने पढ़ा दिया, अब बाकि की पढ़ाई तुम अपने ससुराल में जाकर पूरी कर लेना। न चाहते हुए भी उसका विवाह जौनपुर के एक खाते-पीते परिवार में हो गया। शादी के बाद जब गीता ने पति के साथ कोलकाता जाने की बात कही तो उन्होंने स्पष्ट इन्कार करते हुए गीता को समझाया, “यहाँ मेरे माता-पिता हैं, इसलिए अभी जाने की जिद मत करो, मैं तुम्हे बाद में अपने साथ ले जाऊँगा।”
कुछ समय पश्चात् मायके में गीता ने एक बेटे को जन्म दिया। गीता ने अपने बेटे का नाम आर्यन रखा। बार-बार आर्यन घुटनों के बल चलने लगा तब गीता को वापस ससुराल बुला लिया गया। इस बार भी उसके पति का रवैया वही रहा। गीता जब भी कोलकाता जाने के लिए कहती वह कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देते।
एक दिन माँ की मृत्यु की सुचना पाकर वह मायके आ गई। माँ का अंतिम संस्कार हो गया। दो महीने के पश्चात् एक दिन उसके पिता ने कहा, “बेटी अब तुम्हे अपने ससुराल चले जाना चाहिए।”
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पहले तो गीता चुप रही फिर बोली, “पिताजी क्या लड़कियां अपने माता -पिता पर भार होती है, जो माता-पिता उसका विवाह जल्द से जल्द कर अपना बोझ उतार देते हैं। यदि बेटी शादी के बाद कुछ दिन के लिए मायके आकर रहे तो उसे यह बताया जाता है कि यह उसका घर नहीं है वह अपने ससुराल में जाकर रहे। क्या सिंदूर पड़ते ही बेटियां पराई हो जाती है। कैसी विडंबना है बेटियों का अपना कोई घर ही नहीं होता, न ससुराल मायका, आखिर बेटी का अपना कौन से घर है।”
पिता निरुत्तर हो गये। गीता लगभग दो माह और रही, आखिर भाई-भावी के घर में कितने दिन रहती। धीरे-धीरे मनमुटाव बढ़ने लगा अतः वह फिर ससुराल आ गई। गीता के मन में किसी कोने में यह बात घर करती कि आखिर उसके पति उसे अपने साथ क्यों नहीं ले जाना चाहते हैं। जब विनोद आए तो उसने कहा, “यह मेरा अंतिम फैसला है या तो मुझे अपने साथ ले चलिए या फिर मेरा खर्चा पानी दीजिए। मैं अपने मायके उदयपुर में जाकर अलग कमरा किराए पर लेकर रहूंगी, परन्तु अब जौनपुर में किसी भी कीमत पर नहीं रहूंगी।”
हारकर विनोद ने किराए पर कमरा लेकर उदयपर रहने की स्वीकृति दे दी। गीता उदयपुर में किराए का कमरा लेकर अपने बेटे आर्यन के साथ रहने लगी। गीता ने दाखिला अंग्रेजी माध्यम स्कूल में कर दिया। विनोद प्रत्येक माह गृहस्ती का खर्चा पहुंचा परन्तु उतना ही जितने में बच्चे की पढाई, मकान का किराया और घर की खानगी चल सके। इसमें भी गीता खुश थी क्यों कि कम से कम गाँव के माहौल से बेटे को छुटकारा मिला।
एक बार गर्मियों के छुट्टी में आर्यन ने पिता के साथ कोलकाता जाने की जिद की। न चाहते हुए भी वह अपने परिवार को कोलकाता ले गए। गीता पहली अपने पति के घर कोलकाता आई थी, वह बेहद खुश थी। साथ रहने के दौरान उसे पता चला की उसके पति का किसी दूसरे महिला के साथ नाजायज सम्बन्ध है। उस दिन उसने पति से खूब बड़ा झगड़ा किया और रातभर अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहाती रही। उसने नियति के आगे हार मान ली और वापस अपने बेटे के साथ उदयपुर आ गई। उसके सामने सिर्फ दो ही विकल्प थे या तो पति से समझौता कर अपना जीवन व्यतीत करे, क्यों कि उसके पति के द्वारा भेजे गए पैसों से उसके घर का खर्च किसी तरह चलता था या फिर दूसरों के घर का चौका बर्तन कर अपने बच्चे की परवरिश करे।
काफी सोच विचार के बाद उसने अपने पति के साथ समझौता कर अपने बच्चे की परवरिश करना उपयुक्त समझा। आर्यन अपने पिता विनोद की कमजोरी था, भले ही वह अपने पत्नी से बात न करे, किन्तु अपने बेटे से प्रतिदिन दूरभाष पर बात करते थे। आर्यन में हाई स्कूल एवं इंटर की परीक्षा अव्वल नंबरों से उत्तीर्ण कर ली। बीटेक की पढाई करने वह मद्रास चला गया। पिता ने उसकी पढाई के लिए होने वाले खर्चे में कोई कटौती नहीं की।
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वह दिन भी आ गया जब गीता के बेटे आर्यन को एक अच्छा नौकरी मिल गया, उसका बेटा अपने पैर पर खड़ा हो गया था। अब वह मोहताज नहीं थी। विनोद भी बेटे की सफलता से काफी खुश थे। कुछ दिन से वह अस्वस्थ रहने लगे थे। एक दिन उन्होंने फ़ोन पर आर्यन से कहा, “बेटा, अब मेरे हाथ-पांव नहीं चलते, जोड़ों में काफी दर्द रहता है, ठीक से चल फिर भी नहीं पाता, मैं अब तुम्हारे साथ ही रहना चाहता हूँ।”
आर्यन ने कहा, “नहीं पापा मैं आपके सतह नहीं रह सकता, हाँ यदि आपको पैसों की जरुरत है तो मैं अवश्य भेज सकता हूँ।” विनोद नेकहा , “यह क्या कह रहो हो बेटा, मैंने तुम्हे पढ़ाया लिखाया, योग्य बनाया कि तुम आज अच्छे पद पर कार्यरत हो और एक तुम हो कि मुझे अपने साथ रखने से इन्कार कर रहे हो।” विनोद ने कहा, “मैं तो बस वही कर रहा हूँ पापा जो आपने मुझे सिखाया, आपने भी तो मुझे अपना सानिध्य कभी नहीं दिया। सभी बच्चे जब विद्यालय में अपने पापा की ऊँगली पकड़कर आते थे, तब मैं अपने पिता की ऊँगली पकड़ने के लिए तरसता था, मेरी माँ आपके प्यार के लिए हमेशा तरसती रही, तब अपने हमारे बारे में कभी नहीं सोचा। मैं आपके पैसों का कर चूका सकता हूँ, परन्तु अपने माँ के अनमोल आंसुओं का कर्ज कभी नहीं चूका सकता।”
उसके पश्चात् विनोद ने गीता से उसके पास रहने की व्यक्त की तो गीता ने कहा, “क्या आप मेरे विश्वास को लौटा सकते हैं, जो वर्षों पहले आपने तोड़ा था, क्या मेरे बच्चे का मासूम बचपन लौटा सकते हैं, जिसे आपने उससे छीन लिया। मेरी तपस्या के पिछले 35 वर्ष जो मैंने बगैर कठिन परिस्तिथियों में व्यतीत किए, उन्हें सुखमय बना सकते हैं, नहीं न, जब आप मेरे गुजरा हुआ पल सुखमय नहीं बना सकते हैं तो आज मैं आपको कैसे माफ़ कर सकती हूँ। मैं अपने बेटे के साथ खुश हूँ, मेरा आपका पति-पत्नी का रिश्ता क़ानूनी तौर पर भले ही न टुटा हो परन्तु मानसिक रूप से काफी पहले टूट चूका है जिसे अब मैं नहीं जोड़ सकती।” इतना कहकर गीता ने फ़ोन काट दिया।
आज गीता को अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं था। वह सोच रही थी कि काश उसने अपने माता-पिता के समक्ष पढाई छोड़कर शादी न करने का भी निर्णय लिया होता।
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