रानी लक्ष्मीबाई की कहानी | Hindi Story
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmi Bai Hindi Story) की सौर्य गाथाएँ, किसको नहीं पता! उनका जिक्र आते ही हम अपने बचपन में लौट जाते है और सुभद्रा कुमारी चौहान की वह पंक्तियां गुनगुनाने लगते है, जिनमें वह कहती है, “खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।” तो आइए जानते है इतिहास के पन्नो में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज रानी लक्ष्मीबाई की हिम्मत, सौर्य और देशभक्ति की कहानी।
Rani Lakshmi Bai Hindi Story
सन 1828 में वाराणसी जिले के भदैनी में मोरोपन्त तांबे के घर में एक बच्ची का जन्म हुआ। उस बच्ची का नाम रखा गया मणिकर्णिका। नाम बड़ा था इसलिए घरवालों ने उसे मनु कहकर बुलाना शुरू कर दिया जिसे बाद में दुनिया ने रानी लक्ष्मीबाई के नाम से जाना। मनु अभी बोलना भी नहीं सिख पाई थी, पर उनके चुलबुलेपन ने उन्हें सबका दुलारा बना दिया।
देखते ही देखते वह कब चार साल की हो गई किसी को पता नहीं चला। फिर अचानक एक दिन, उनके सर से माँ भागीरथी बाई का साया हट गया। उन्होंने हमेशा के लिए अपनी आंखे बंद कर ली थी। अब पिता मोरोपन्त तांबे ही थे, जिन्हे मनु को माता और पिता दोनों बनकर पालना था। बिन माँ के बेटी का पालन-पोषण करना आसान नहीं था, पर पिता मोरोपन्त ने धैर्य नहीं खोया और न ही उन्होंने अपनी जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ा। उन्होंने मनु को कभी भी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी और एक बेटे की तरह ही बड़ा किया।
शायद उन्होंने बचपन में ही मनु के हुनर को पहचान लिया था। तभी पढाई के साथ उन्होंने मनु को युद्ध कौशल भी सिखाए। धीरे-धीरे मनु घुड़सवारी, तलवारबाजी और तीरंदाजी में पारंगत होती गई। देखते ही देखते मनु एक योद्धा की तरह कुशल हो गई। उनका ज्यादा से ज्यादा वक्त अब लड़ाई के मैदान में गुजरने लगा।
कहते है की मनु के पिता संतान के रूप में पहले लड़का चाहते थे, ताकि उनके बंश को आगे बढ़ाया जा सके। लेकिन जब मनु का जन्म हुआ तो उन्होंने तय कर लिया था कि वह उसे ही एक बेटे की तरह तैयार करेंगे। मनु ने भी अपने पिता को निराश नहीं किया और उनके सिखाए हर कौशल को जल्द से जल्द सीखती गई। इसके लिए वह लड़को के सामने मैदान में उतरने से भी नहीं कतराई। उनको देखकर सब उनके पिता से कहते थे कि तुम्हारी बिटियां बहुत ही खास है और यह आम लड़कियों की तरह बिलकुल भी नहीं है।
मनु के बचपन में नाना साहिब उनके दोस्त हुआ करते थे। वैसे तो दोनों में उम्र का काफी बड़ा फासला था। नाना साहिब मनु से लगभग दस साल बड़े थे, लेकिन उनके दोस्ती के बीच कभी उम्र का यह अंतर नहीं आया। नाना साहिब और मनु के साथ एक शख्स और था जो अक्सर इन दोनों के साथ रहता था और उस शख्स का नाम था तात्या टोपे।
बचपन से यह तीनों एक साथ खेलते और युद्ध के प्रतियोगिताओं में भी एक साथ ही भाग लेते रहते थे। माना जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई ने जब पहली आजादी की जंग लड़ी थी, तब भी इन दोनों ने उनका कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया था। मनु बचपन से ही यह मानती थी कि वह लड़कों के जैसे सारे काम कर सकती है।
एक बार उन्होंने देखा कि उनके दोस्त नाना, एक हाथी पर घूम रहे थे। हाथी को देखकर उनके अंदर भी हाथी की सवारी की जिज्ञासा जागी। उन्होंने नाना को टोकते हुए कहा कि वह हाथी की सवारी करना चाहती है। इस पर नाना ने उन्हें सीधे इंकार कर दिया। उनका मानना था कि मनु हाथी के सैर करने के योग्य नहीं है। यह बात मनु के दिल को छू गई और उन्होंने नाना से कहा कि एक दिन उनके पास भी उनके खुद के हाथी होंगे।आगे चलकर जब वह झाँसी की रानी बनी तो यह बात सच साबित हुई।
मनु महज़ 13-14 साल की की रह होंगी, जब उनकी शादी झाँसी के राजा गंगाधर राव से कर दी गई। उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति भी हुई थी लेकिन चार महीने के अल्पआयु में ही उसकी मृत्यु हो गई। अंग्रेजो इ अपने राज्य को बचाने के लिए राजा गंगाधर राव ने एक बच्चे को गोद लिया। बच्चे का नाम दामोदर राव रखा गया। लेकिन गंगाधर राव बच्चे के नामकरण के अगले दिन ही चल बसे।
अपनी खुद की संतान न होने के कारण अंग्रेजी हुकूमत ने रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी छोड़ने का फरमान जारी कर दिया। गवर्नर जनरल, लॉर्ड डलहौज़ी ने झाँसी पर कब्ज़ा कर लिया और रानी को गद्दी से बेदखल करने का आदेश जारी कर दिया। लेकिन स्वाभिमानी रानी ने फैसला कर लिया था कि वह अपनी झाँसी अंग्रेजो को नहीं देगी।
जब अंग्रेजी दूत रानी के पास किला खाली करने का फरमान लेकर आए तो रानी ने गरजकर कहा “मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी।” जनुअरी 1858 में अंग्रेजी सेना झाँसी पर कब्ज़ा करने के लिए आगे बढ़ी। लक्ष्मीबाई युद्ध के मैदान में कूद पड़ी और उनकी सेना ने अंग्रेजो को आगे बढ़ने से रोक दिया। लड़ाई दो हप्तों तक चली और अंग्रेजी सेना को पीछे हटना पड़ा। लेकिन अंग्रेज बार-बार दोगुनी ताकत के साथ वापस आ जाते।
झाँसी की सेना लड़ते-लड़ते थक गई थी। आखिरकार, अप्रैल 1858 में अंग्रेजो ने झाँसी पर कब्ज़ा कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई अपने कुछ भरोसेमंद साथियों के साथ अंग्रेजो को चकमा दे कर किले से निकलने में कामियाब हो गई। रानी और उनकी सेना कालपी जा पहुंची और उनके द्वारा ग्वालियर के किले पर कब्ज़ा करने की योजना बनाई गई। ग्वालियर के राजा किसी भी हमले की तैयारी में नहीं थे।
30 में 1858 के दिन रानी अचानक अपने सैनिको के साथ ग्वालियर पर टूट पड़ी और 1 जून 1858 के दिन ग्वालियर के किले पर रानी का कब्ज़ा हो गया। ग्वालियर अंग्रेजी हुकूमत के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। ग्वालियर के किले पर रानी लक्ष्मीबाई का अधिकार होना, अंग्रेजो की बहुत बड़ी हार थी। अंग्रेजो ने ग्वालियर के किले पर हमला कर दिया। रानी ने भीषण मार-काट मचाई। बिजली की भांति, लक्ष्मीबाई अंग्रेजो का सफाया करते हुए आगे बढ़ती जा रही थी।
ग्वालियर के लड़ाई का दूसरा दिन था, रानी लड़ते-लड़ते अंग्रेजो से चारों तरग से घिर गई। वह एक नाले के तरफ आ पहुंची जहाँ आगे जाने का कोई रास्ता नहीं था और उनका घोडा नाले को पार नहीं कर पा रहा था। रानी अकेली थी और सेकड़ो अंग्रेज सैनिकों ने मिलकर रानी पर वार करना शुरू कर दिया। रानी घायल होकर गिर पड़ी, लेकिन उन्होंने अंग्रेज सैनिकों को जाने नहीं दिया और मरते-मरते भी उन्होंने उन सबको मार गिराया।
लक्ष्मीबाई नहीं चाहती थी कि उनके मरने के बाद उनके शरीर को अंग्रेज छू पाएं। वहीं पास साधु की कुटिया थी। साधु उन्हें उठाकर अपने कुटिया तक ले आए। लक्ष्मीबाई ने साधु से विनती की कि उन्हें तुरंत जला दिया जाए। और इस तरह 18 जून 1858 के दिन ग्वालियर में रानी वीरगति को प्राप्त हो गई।
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Sonali Bouri
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