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गुरु की मौन - गौतम बुद्ध की कहानी

गुरु की मौन – गौतम बुद्ध की कहानी

Posted on June 2, 2021

आज हम आपको गौतम बुद्ध की एक कहानी सुनाने जा रही हूँ जिसका नाम है “गुरु की मौन” हमें उम्मीद है कि आपको यह कहानी जरूर पसंद आएगी।

 

गुरु की मौन – गौतम बुद्ध की कहानी

 

जंगल में ऊँचे पहाड़ो में एक गुरु रहते थे। अपने जीवन में उन्होंने कभी भी किसी को अपना शिष्य नहीं बनाया था। उनके पास अनेक लोग शिष्य बनने की आश लेकर आते थे और वह उन्हें भगा देते थे। लेकिन समय बीतता चला गया और अब वह गुरु बहुत बूढ़े हो चुके थे। अब उन्हें रोज मर्रा के काम करने में भी दिक्क्त होने लगी थी।

 

उन्होंने सोचा किसी को अपना शिष्य बना लेता तो कुछ मदद हो जाती। लेकिन अब उनके पास कोई शिष्य नहीं था और कोई शिष्य बनना भी नहीं चाहता था। सबको यही लगता था कि कौन पागल गुरु के पास जाएगा। सबको तो यही पता था कि वह किसी को शिष्य नहीं बनाएंगे बल्कि डांटकर भगा देंगे।

 

एक दिन एक युवक अपने कंधे पर एक पोटली बांधे गुरु के पास पहुंचा और बोला, “हे गुरुदेव, आप मुझे डांट ले, चाहे दंड दे कुछ भी करे लेकिन मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। मैं आपसे उस ज्ञान को प्राप्त करने का इच्छुक हूँ जो आपने आज तक किसी नहीं दिया।” गुरु ने कहा, “हाँ ठीक है, आज से तुम मेरे शिष्य। कल से मैं तुम्हे ज्ञान दूंगा।”

 

रात का समय था। आश्रम में पानी नहीं था। पानी थोड़ा दूर से लाना पड़ता था। शिष्य को प्यास लगी थी और वह पानी ढूंढने लगा। गुरु ने उसे पानी ढूंढता देख कहा, “आज ऐसे ही सो जाओ, आज पानी नहीं है, कल पानी लेने चलेंगे।”

 

अगले दिन गुरु शिष्य को लेकर पानी के लिए चल पड़े। शिष्य को बहुत प्यास लगी थी। उसका गला सूखा हुआ था। वह जल्द से जल्द पानी चाहता था। दोनों एक कुएं के पास पहुंचे। शिष्य ने जल्दी से उस कुएं से पानी निकाला और पी गया।

 

गुरु ने कहा, “अरे नालायक गुरु को भूल गया! मैं भी प्यासा हूँ, मुझे भी पानी चाहिए।” शिष्य ने गुरु से माफ़ी मांगी और गुरु को पानी पिलाया। शिष्य ने गुरु से कहा, “गुरुदेव आज आप मुझे कुछ ज्ञान देने वाले थे। वह ज्ञान क्या है?” गुरु ने कहा, “अच्छा ठीक है, तुम एक काम करो, इस कुएं से कुछ पानी निकालो।”

 

शिष्य ने उस कुएं से कुछ पानी बाहर निकाला। तब गुरु ने कहा, “अब मुझे बताओ, इस पानी में और जो पानी तुमने पहले पिया था उसमे क्या अंतर है।” शिष्य ने कहा, “गुरुदेव, लेकिन वह पानी तो मैं पी गया हूँ, अंतर कैसे बता सकता हूँ? इसके लिए तो दोनों पानी का मेरे समक्ष होना आवश्यक है।”

 

गुरु ने शिष्य को थोड़ा घूरकर देखा और फिर कहा, “जब मनुष्य के अंदर किसी चीज के लिए प्यास उत्पन्न होती है और वह प्यास अत्यंत गहरी होती है तब मनुष्य उस प्यास के निवारण के लिए अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा लगा देता है और तब उसे केवल अपनी प्यास बुझाने वाली वस्तु ही दिखाई देती है। उसके आसपास क्या है यह उसे नजर नहीं आता। इस प्रकार पानी मिलने पर तुम मुझे भूल गए थे और केवल तुम्हे पानी ही नजर आया। लेकिन अभी भी तुम्हारे हाथ में पानी है और अब तुम्हारे चारों ओर बहुत कुछ है। पानी भले ही वैसा हो जैसा की तुमने पहले पिया था लेकिन यह वह पानी नहीं है जिसके लिए तुम्हारे प्राण सूखे जा रहे थे। देखो तुम इसे अभी भी अपने हाथ में लिए खड़े हो, तुमने अभी तक इसे पिया नहीं है, हो सकता है तुम इसे फेंक दो। यह पानी और इस कुएं में जितना भी पानी है सब एक है लेकिन हमारे मन के स्तिथि के कारण यह हमें अलग-अलग नजर आ सकता है अर्थात सब कुछ तुम में ही बदलता है, बाहर कुछ भी नहीं।”

 

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शिष्य यह सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने अपनी पोटली से एक लेखनी निकाली और गुरु के कहे शब्दों को लिखना शुरू कर दिया। गुरु ने कहा, “यह क्या कर रहे हो?” शिष्य ने कहा, “गुरुदेव, आपने जो कहा उसे लिख रहा हूँ। फिर मैं इसको याद भी करूँगा। तभी तो मैं ज्ञानी बनूँगा।” गुरु ने शिष्य को ऊपर से निचे तक देखा और कहा, “चलो अब आश्रम चलते है, भिक्षा भी मांगनी है।”

 

दोनों आश्रम चले गए। भिक्षा मांगकर रात में खाना खा कर सो गए। अगले दिन गुरु ने शिष्य को उठाया और कहा, “जल्दी चलो।” यह कहकर वह शिष्य को लेकर कुएं के पास पहुंचे और शिष्य से कहा, “कुएं से पानी निकालो।” शिष्य ने कुएं से पानी निकाला। तब गुरु ने कहा, “बताओ इस पानी में और जो पानी तुमने कल पिया था उसमे क्या अंतर है?”

 

शिष्य ने अपनी पोटली निकाली और उसमे जो लिखा था उसे पढ़ना शुरू कर दिया – जब किसी मनुष्य में किसी चीज के लिए प्यास उत्पन्न होती है…तब गुरु ने उसे रोकते हुए कहा, “क्या कर रहे हो? इस पानी को सूंघो।” शिष्य ने उस पानी को सुंघा और कहा, “इस पानी से तो बतबू आ रही है, यह तो सड़ा हुआ है।” तब गुरु ने कहा, “देखो उस कुएं में,शायद कोई जानवर गिरकर मर गया है।”

 

शिष्य ने झांककर देखा तो उसे एक जानवर कुएं में गिरा हुआ दिखाई दिया। शिष्य ने उस जानवर को कुएं बाहर निकाला। तब गुरु ने शिष्य से कहा, “देखो इस जानवर को, इस धरती पर जो भी जन्म लेता है आवश्यिक रूप से मृत्यु  को प्राप्त होता है। जब हम जन्म लेते है तब हम में जीवन सम्पूर्ण होता है और मृत्यु शून्य होती है। धीरे-धीरे जीवन घटता जाता है मृत्यु सम्पूर्ण होती जाती है। किसी की भी मृत्यु अचानक नहीं होती। जन्म से ही यह प्रक्रिया धीरे-धीरे चलती जाती है और अंत में हमारी यात्रा जन्म से मृत्यु  की ओर होती है। किसी के लिए यह प्रक्रिया तेज होती है तो किसी के लिए धीमी लेकिन होती सभी के लिए है।”

 

शिष्य ने अपनी लेखनी निकाली और गुरु द्वारा कही गई बात लिख डाली। गुरु ने शिष्य से कहा, “चलो कुएं की ओर।” शिष्य ने गुरु के पैर पकड़ लिए  और कहा, “नहीं गुरुदेव, आप मुझे कुएं में न धकेले, मैं अभी मरना नहीं चाहता।” गुरु ने कहा, “अरे मुर्ख, मैं तो केवल इतना कह रहा हूँ कि इस कुएं के चारों ओर बाड़  लगा देते हैं जिससे इस कुएं में कोई जानवर गिरकर न मरे।”

 

दोनों, गुरु और शिष्य आश्रम वापस आ गए। एक दिन शिष्य ने गुरु से कहा, “गुरदेव, आप मुझे वह ज्ञान दीजिये जो सबसे बड़ा हो। वैसे भी आपकी उम्र हो चुकी है, आप कब मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे पता नहीं। अगर आप मुझे वह ज्ञान बताकर मरेंगे तो मैं ज्ञान लोगों तक आगे पहुंचा सकता हूँ।”

 

शिष्य अपनी लेखनी निकाल बैठा था। लेकिन गुरु ने कुछ नहीं बोला वह मौन रहे। शिष्य ने अपनी लेखनी से लिखा बड़ा ज्ञान और उसके निचे लिखा मौन। एक वर्ष तक रोज वह शिष्य गुरु के उस ज्ञान के बारे में पूछता और गुरु मौन रहते और वह रोज अपनी लेखनी से मौन लिखता।

 

एक दिन रात को वह उठा और बाहर चांदनी रौशनी में बैठ गए। सोच रहा था कि गुरुदेव उसे वह ज्ञान क्यों नहीं दे रहे जो सबसे बड़ा है। उसके मन में हजारों विचार चल रहे थे। अचानक उसने एक पक्षी की आवाज सुनी। उसकी तरफ वह आकर्षित हुआ। तब उसने हवा से हिलते पेड़ो  के पत्तों की सरसराहट सुनी। उसने ठंडी चलती हवा को महसूस किया। उसने कुछ सन्नाटा महसूस किया। लेकिन उस सन्नाटे में कुछ आवाजे भी थी। तब उसने सन्नाटे की आवाज सुनी। उसने अपनी आंखे बंद कर ली और बड़े ध्यान से सभी आवाजों को सुन रहा था।

 

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उसका मन शांत हो गया था। वह पहलीबार इतना आनंदित महसूस कर रहा था। वह भूल गया उस बड़े ज्ञान के बारे में। लेकिन तुरंत ही उसके मन में ख्याल आया कि ऐसे अनुभव को तो मैं लिख लेता हूँ। वह अपनी लेखनी लाया और उसने देखा कि उसके सभी पन्नो पर लिखा है – मौन और सबसे ऊपर लिखा है – बड़ा ज्ञान। तब उसे अचानक अहसास हुआ कि यही तो बड़ा ज्ञान है, मौन ही बड़ा ज्ञान है। गुरुदेव रोज मुझे ज्ञान दे रहे थे, मैं ही उसे नहीं ले पा रहा था।

 

वह पूरी रात बैठा रहा और मौन का अनुभव करता रहा। सुबह होने तक वह गुरु के पास गया और उनके समक्ष बैठकर उन्हें बस चुपचाप देखता रहा। गुरु समझ गए कि शिष्य को मौन मिल गया है। गुरु ने कहा, “मौन ज्ञान नहीं है लेकिन मौन ही ज्ञान का आधार है। यह हमें वह देखने में मदद करता है जो हमारे आँखों के सामने होते हुए भी हम नहीं देख पाते। बाहर चाहे कितना भी शोर हो लेकिन मन के भीतर मौन होना चाहिए।”

 

शिष्य ने अपनी लेखनी गुरु को समर्पित कर दी और फिर उसने कभी कुछ नहीं लिखा, सिर्फ महसूस किया, अहसास किया और असली ज्ञान को प्राप्त किया।”

 

हमें उम्मीद है आपको यह कहानी “गुरु की मौन – गौतम बुद्ध की कहानी”अवश्य ही अच्छी लगेगी अगर अच्छा लगे तो शेयर जरूर करें और कमेंट करके अपना विचार भी जरूर बताएं।

 

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