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महान वैज्ञानिक लुई पाश्चर की जीवनी | Biography of Louis Pasteur in Hindi

महान वैज्ञानिक लुई पाश्चर की जीवनी | Biography of Louis Pasteur in Hindi

Posted on February 10, 2021

 दोस्तों आज के लेख में हम बात करेंगे महान वैज्ञानिक लुई पाश्चर की जीवनी (Biography of Louis Pasteur in Hindi) के बारे में जिन्होंने अपना पूरा जीवन मानवता की सेवा में और रेबीज के टिके की अनुसंधान करने में लगा दिया। 

 

लुई पाश्चर की जीवनी | Biography of Louis Pasteur in Hindi

दोस्तों एक कहाबत है कि कुछ लोग महान पैदा होते हैं और कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती है। हमारे देश में कुछ ऐसे निःस्वार्थ मानव सेवा करने वाले महान वैज्ञानिक हमारे पृथ्वी पर  जन्मे हैं जिनका नाम तक अधिकतर व्यक्ति नहीं जानते। लेकिन इस वास्तविक महान वैज्ञानिक के हमारे जीवन में भूमिका भगवान से कम नहीं कही जा सकती क्यूंकि इन्होने करोडो लोगों के जीवन बचाए हैं।

आज मैं असेही एक महान वैज्ञानिक लुई पाश्चर की जीवनी की कहानी सुनाने वाली हूँ।

 

लुई पाश्चर की जीवनी | Biography of Louis Pasteur in Hindi

यह कहानी है सन 1822 की। इन दिनों फ़्रांस के एक गाँव में चमड़े का व्यापार कर रहे एक निर्धन व्यापारी की बड़ी तमन्ना था कि काश वह अच्छे से पढ़-लिख पाता तो किसी बड़े कंपनी में आरामसे कुर्सी पर बैठकर हुकुम चला रहा होता। अगर मैं पढ़-लिख लिया होता तो पुरे दिन मरे हुए जानवरों का बदबूदार चमड़ा नहीं उतारना पड़ता। वह व्यापारी अक्सर मन ही मन ऐसा सोचा करता था। तभी उसे खबर मिली की उसकी गर्ववती पत्नी ने एक लड़के को जन्म दिया है (लुई पाश्चर, 27 दिसम्बर 1822)। यह खबर सुनकर वह चमड़े का व्यापारी बहुत खुश हुआ। उसे लगा की भले ही वह न पढ़ पाया हो लेकिन वह अपने बच्चे को पढ़ा-लिखाकर जरूर बड़ा अफसर बनाएगा। जब वह बच्चा यानि लुइ पाश्चर 5 साल का हुआ तो पिता ने निर्धन होने के बावजूद भी उसका दाखिला बेहद महंगे विद्यालय में करवाया। किन्तु पिता को तब बहुत दुख हुआ जब उन्होंने पाया कि उनका बच्चा पढाई में बेहद कमजोर था। कक्ष के साथी छोटे लुई को मंदबुद्धि कहकर उसका मजाक उड़ाते थे।

 

वैसे लुई बहुत मेहनती थे। स्कूल जाने के साथ-साथ पिता के काम में भी हाथ बटाते थे। तभी अचानक से एक अनहोनी घटना घटी। असलमे जिस गाँव में लुई और उसके पिता रहा करते थे वह गाँव जंगल के बेहद करीब था और उस जंगल में काफी भेड़िया रहा करते थे। जंगल से पागल हो चूका एक भेड़िया आया और उसने एक ही दिन में गाँव के ऑटो लोगों को काट लिया। खेर दिन बीतने के साथ-साथ गाँववालो ने किसी तरह उस भेड़िया का काम तो तमाम कर दिया लेकिन उस पागल भेड़िए दुयारा काटे गए आठ लोगों में से पांच लोग अगले ही कुछ सप्ताह में रेबीज का शिकार हो गए।

 

उन पांचो लोगों की हालत बिलकुल उस भेड़िया जैसे हो गए। वह अजीबो गरीब हरकतें करने लगे। पानी को देखकर डरने लगे और अगले ही कुछ दिनों में उनकी तड़प-तड़प कर मौत हो गई। बालक लुई ने उन लोगों का तड़पना देखा। वह छोटे होने के बावजूद भी हर तरह से उनकी मदद करना चाहते थे। किन्तु उन लोगों की मदद एक बालक तो क्या दुनिया का कोई बड़े सा बड़ा डॉक्टर नहीं कर सकता था। क्यूंकि रेबीच यानि हाइड्रोफोबिया पूर्णरूप से लाइलाज बीमारी है। गाँववालो के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। अक्सर जंगल से कोई पागल भेड़िया या पागल कुत्ता गाँववालो को काट लेता था जिसे रेबीज की बजह से लोगों की मौत होती रहती थी। किन्तु बालक लुई ने यह अपनी जीवन में पहली बार देखा था। वह हमेशा अपने पिता से पूछते रहते कि क्यों नहीं उन लोगों का बचाया जा सका? उन्हें कोई दवाई देकर क्यों ठीक नहीं किया गया? तंग आकर लुई के पिता ने कहा कि बेटा तुम खुद क्यों नहीं इस बीमारी का इलाज ढूंढते? खूब पढ़ो, नई खोजे करो। अगर तुम दिल लगाकर पढाई करोगे तो इस बीमारी का इलाज भी खोज लोगे।

 

पिता की यही बात बालक लुई के दिमाग में बैठ गई। उन्हें लगा कि अगर पढाई करने से इस बीमारी का इलाज ढूंढा जा सकता है तो मैं रात-दिन पढ़ूंगा और इस तरह से लोगों को नहीं मरने दूंगा। अब लुई ने ध्यान लगाकर पढ़ना शुरू किया जिससे उनके पिता बहुत खुश हुए। स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद लुई को आगे की पढ़ाई के लिए उनके पिता ने उन्हें पैरिस भेजा। इन सबके लिए उनके पिता ने बहुत बड़ा कर्ज भी लिया था। लुई ने विज्ञान के हर क्षेत्र में पढ़ाई की। पहले रसायन विज्ञान फिर भौतिकी। 1842 में वह स्ट्रॉसंबर्ग विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे। किन्तु दुसरो को पढ़ाने के साथ-साथ उन्होंने खुद ज्ञान अर्जित करना कभी नहीं छोड़ा और इस दौरान उन्होंने जीव विज्ञान को समझना शुरू किया।

 

लुई ने अपने परियोगो में पाया कि लगभग हर खाने वाले पदार्थ में बेहद ही छोटे कीड़े होते हैं। यह कीड़े इतने छोटे होते हैं कि नग्न आँखों से इन्हे देख पाना संभव नहीं होता। लुई ने इन कीड़ो को जीवाणु का नाम दिया। इससे पहले जीव विज्ञान के क्षेत्र में जीवाणु जैसे किसी भी जीव के बारे में कोई भी नहीं जानता था। लुई ने जाना कि इन जीवाणु की बजह से ही खाने-पिने की चीज़े जल्दी ख़राब हो जाती है। उन्होंने देखा कि यह जीवाणु अधिक तापमान बर्दास्त नहीं कर पाते। उन्होंने दूध को 75 डिग्री सेलसियस पर गरम करके तुरंत ठंडा किया तो पाया कि अब दूध पहले की तरह जल्दी से ख़राब नहीं होता। क्यूंकि गरम करके ठंडा करने के कारन दूध के सभी जीवाणु मारे गए। वास्तब में दूध के अंदर मौजूत जीवाणु ही दूध को ख़राब करते थे। दूध को गरम करके ठंडा करने की इस तकनीक को आज भी लुई पाश्चर के नाम से जाना जाता है और इसे पाश्चराइजेशन तकनीक कहा जाता है।

 

अब लुई पाश्चर के दिमाग में एक विचार आया कि जिस तरह से यह जीवाणु हर खाने-पिने की चीजों में पाया जाता है तो हो सकता है उसी तरह से यह जीवाणु हमारे शरीर में भी पाए जाते हो और यही जीवाणु हमें बीमार करते हो। हो न हो रेबीज के लिए यही सूक्षम कीड़े जिम्मेदार है। उन्होंने सोचा अगर किसी तरह से मैं रेबीज की उन कीड़ो की पहचान करके उन्हें खत्म करने का तरीका समझ लूँ तो संसार को सदा के लिए इस जानलेवा बीमारी में छुटकारा मिल सकता है। इसके बाद से लुई ने न रात देखा न दिन, उन्हें जहाँ किसी के रेबीज हो चुके कुत्ते या भेड़िया देखे जाने की खबर मिलती वह तुरंत वहाँ पहुँच जाते। फिर भले ही वह जानवर उन्हें काटकर उन्हें ही रेबीज का शिकार बनाले। लेकिन वह हर हाल में अपनी जान जोखिम में डालकर उस जानवर को पकड़ते और उसके रक्त की जाँच करते। मानवता के भलाई के लिए उन्होंने अपनी ज़िंदगी पागल कुत्तो की धड़ पकड़ते हुए समर्पित कर दी।

 

लुई पाश्चर की जीवनी | Biography of Louis Pasteur in Hindi

परिवार की तरफ ध्यान न दिए जाने के कारन उनकी पत्नी भी उनसे नाराज होने लगी। किन्तु लुई पाश्चर को अपने प्यार का परिणाम मिला। उन्होंने रेबीज की वाइरस की पहचान कर ली। उन्होंने जाना कि पागल कुत्ते या भेड़िए जैसे जीवों के शरीर के साथ-साथ लार में भी यह वायरस मौजूत होता है और जब रेबीज से प्रभावित जानवर किसी इंसान या अन्य समस्त जानवर को काटता है तो उसके मुँह के लार से निकला रेबीज वायरस घाव के माध्यम से समस्त जानवर के शरीर में प्रवेश करता है और उस दूसरे जानवर को भी रेबीज से संक्रमित कर देता है।

 

पर अब सबसे बड़ी चुनौती थी कि शरीर के अंदर पहुँच चुके इस वायरस को नष्ट कैसे किया जा सकता है? अब दूध की तरह शरीर को तो उबाला नहीं जा सकता। पास्चर साफ का यह पहले से ही मानना था कि हमारे शरीर के अंदर सभी प्रकार के रोगो से लड़ने के लिए शक्ति छुपी हुई होती है जिसे हम इम्युनिटी सिस्टम या रोग-प्रतिरोधक प्रणाली कहते है। लेकिन वह समझ नहीं पा रहे थे कि हमारे शरीर के रोग-प्रतिरोधक प्रणाली रेबीज के वायरस से लड़ने में हार क्यों मान जाती है। तभी उनके किसी दोस्त ने उन्हें अपनी मुर्गियों में फैले गए किसी हैजे जैसे रोग के बारे में बताया। उनके दोस्त ने बताया की एक-एक करके उनके सभी मुर्गिया मर रहे हैं।

 

लुई पाश्चर ने अपनी प्रयोग उन बीमार मुर्गियों पर शुरू कर दिए। उन्होंने पाया कि कुछ ऐसे भी जीवाणु या विषाणु होते हैं जो किसी भी जीव के रोग-प्रतिरोधक क्षमता को चख्मा दे देते हैं यानि हमारे रोग-प्रतिरोधक क्षमता विषाणु से लड़ तो सकते हैं और उसे नष्ट भी कर सकते हैं। किन्तु वह विषाणु हमारे रोग प्रतिरोधक क्षमता से छुपकर अपना कार्य करता है। तो कैसे इतने होशियार हो चुके विषाणु की पहचान रोग-प्रतिरोधक क्षमता से कराई जाए? क्यूंकि अगर एक बार हमारे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता उस विषाणु को पहचान पाती है तो निश्चित रूप से उस विषाणु से लड़ भी पाएगी। लेकिन यह सब कैसे होगा? यह सोचते-सोचते लुई पाश्चर ने खाना और सोना तक छोड़ दिया।

 

दोस्तों मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है। आखिरकार लुई पाश्चर को सफलता मिली। हुआ यह कि मुर्गियों के साथ अपने प्रयोगो के दौरान उन्होंने मर चुके मुर्गियों के रक्त से उन्हें बीमार करने वाले विषाणुओ को निकाला और उन विषाणुओ को एक खास तरह के लोड़ में डाला। इस लवण के प्रभाव से विषाणु निष्क्रिय हो चुके थे। अब इस लवण का इंजेक्शन उन्होंने उन मुर्गियों को लगाना शुरू किया जो बीमारी से प्रभावित नहीं थी बल्कि बिलकुल स्वस्थ थी। नतीजे हैरान कर देने वाले थे। जिन-जिन मुर्गियों को इंजेक्शन लगाया गया था उन्हें आगे चलकर कोई बीमारी नहीं हुई जबकि बाकि की मुर्गिया जिन्हें इंजेक्शन नहीं लगाया गया, युही बीमारी से प्रभावित होकर मरती रही।

 

लुई साफ का अंदाजा बिलकुल सही साबित हुआ। असलमे जब लवण से निष्क्रिय किए गए विषाणु मुर्गियों के शरीर में गए तो वह विषाणु निष्क्रिय होने की बजह से मुर्गियों को कोई नुकसान नहीं पहुँचा पाए और न ही उन्हें स्क्रीय विषाणु की तरह खुदको छुपाना आया और मुर्गियों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ने उनकी पहचान करके उन्हें खत्म करने की शक्ति बिकसित कर ली और उसी शक्ति ने निष्क्रिय और स्क्रीय दोनों तरह के ही विषाणु को नष्ट कर दिया। अब इस हैजे जैसे बीमारी के विषाणु मुर्गियों की शरीर पर बेअसर हो चुके थे।

 

दोस्तों मानवता के इतिहास में यह बहुत बड़ी खोज थी। इसी खोज को आधार मानकर अगले कुछ दशकों में आने को प्राणघातक बीमारीयो के इलाज बिभिन्न खोजकर्ताओं ने ढूंडे। लुई पच्चर ने इस खोज से उत्साहित होकर जब अपने प्रयोगो को आगे बढ़ाया तो उन्हें अपने बचपन के सपने यानि रेबीज के इलाज को ढूंढने में सफलता मिल गई। उन्होंने रेबीज के वायरस को निष्क्रिय करके एक स्वस्थ कुत्ते में डाला और जिससे उस कुत्ते के शरीर में मौजूत रोग-प्रतिरोधक क्षमता ने उस वायरस को पहचानकर उसे बेअसर करने की शक्ति ईजाद कर ली।

 

जब उस कुत्ते के शरीर में रेबीज के स्क्रीय वायरस डाले गए तो भी कुत्ते को रेबीज नहीं हुआ और बिलकुल स्वस्थ रहा। क्यूंकि कुत्ते के शरीर ने रेबीज के वायरस से लड़ना सिख लिया था। शुरुआती अनुसंधान के नतीजे बेहद सकारात्मक थे जिससे लुई पाश्चर बेहद खुश और उत्साहित थे। किन्तु यह प्रयोग मनुष्य के शरीर पर भी सकारत्मक असर दिखाएँगे इसकी कोई गैरेंटी नहीं थी। लुई इसी विषय में अनुसंधान कर ही रहे थे कि तभी एक महिला उनके बच्चे को लेकर रोते हुए उनके पास आई। महिला ने बताया कि दो दिन पहले ही उसके बच्चे को पागल कुत्ते ने काटा है और हर घंटे में उसकी बच्चे की हालत ख़राब हो रही है।

 

लुई पाश्चर की जीवनी | Biography of Louis Pasteur in Hindi

लुई पाश्चर ने जब इसकी जाँच की तो पाया कि बच्चे को कुत्ते ने पूरी तरह से काट लिया था। जिस कुत्ते ने बच्चे को काटा था लुई पाश्चर ने किसी तरह से उस कुत्ते को पकड़कर उसकी जाँच की तो पाया कि वह कुत्ता रेबीज का शिकार था यानि अब वह बच्चा भी रेबीज का शिकार हो जाएगा। भले ही लुई पाश्चर ने रेबीज के इलाज को सफलतापूर्वक कुत्ते पर आज़मा लिया था किन्तु किसी इंसान पर इस इलाज को आज़माना जोखिमभरा काम हो सकता था। क्यूंकि शरीर में रेबीज के प्रति रोग-प्रतिरोधक बनाने के लिए रेबीज का ही वायरस बच्चे के शरीर में छोड़े जाना था। भले ही वह वायरस निष्क्रिय होता लेकिन फिर भी मानव शरीर में जाकर वह क्या असर करता इसका किसी का कोई अंदाजा नहीं था।

 

बच्चे की माँ लुई के सामने अपने बच्चे के प्राण बचाने के लिए भीख माँग रही थी। किन्तु लुई पाश्चर के सामने बहुत बड़ा धर्म-संकट था। उनके दुयारा बनाई गई वैक्सीन अभी शुरुवाती स्टेज पर ही थी। अभी उन्हें बहुत सारे प्रयोग करके देखने बाकि थे। अगर वह बच्चे पर अपने प्रयोग आज़माते और सफल न हो पाते तो बच्चे के ख़राब होते हालात का सारा दोष निश्चितरूप से लुई पाश्चर का होता। उनका सामाजिक बहिष्कार तक कर दिया जाता और उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ सकती थी या फिर बच्चे की मौत भी हो सकती थी। लेकिन वैक्सीन न आज़माने की स्तिथि में भी बच्चे की मौत होना निश्चित थी। इसलिए लुई पाश्चर ने वैक्सीन आज़माने का फैसला किया।

 

उन्होंने शुरुवात में कम मात्रा में निष्क्रिय रेबीज वायरस बच्चे के शरीर में इंजेक्ट किए। फिर वह प्रतिदिन डोज बढ़ाते रहे। ऐसा करते-करते उन्होंने लगातार 21 दिनों तक उस बच्चे क्लो इंजेक्शन दिए और आखिरकार उन्हें पूरी मानवता के रक्षा करने वाले महान आश्चर्यजनक सफलता मिली। उस बालक को रेबीज नहीं हुआ। लुई पाश्चर की इस खोज ने मेडिकल की दुनिया में क्रांति ला दी और मानवता को एक बहुत बड़े संकट से बचा लिया।

 

दोस्तों, रेबीज मानव की ज्ञात-इतिहास की सबसे प्राचीन बीमारी मानी जाती है। प्राचीन समय में गुफाओ में भी इस बीमारी से सम्बंधित चित्रण मिलते रहे हैं और इस अति प्राचीन बीमारी की इलाज के लिए जब 1885 में हुए पाश्चर ने रेबीज के टिके की खोज की तो उस समय पुरे विश्व की जनसंख्या 150 करोड़ थी और आपको जानकर हैरानी होगी कि इनमे से हर साल करीब एक करोड़ लोग कुत्तो, भेडियो, चमगादड़ो और आदि दुयारा काटे जाते थे। यह तमाम जानवर रेबीज के प्रमुख जानवर हैं।

 

आप अंदाजा लगा सकते हैं कि लुई दुयारा ईजाद किए गए रेबीज के टिके ने आज तक कितने करोड़ो लोगों की जान बचाई होग। हालाँकि रेबीज होने के बाद उसका कोई इलाज मुमकिन नहीं है। लेकिन किसी पागल जानवर के काटने के तुरंत बाद से लेकर 3 दिन तक अगर रेबीज का टीकाकरण शुरू हो जाए तो लगभग सौ प्रतिशत लोगों पर रेबीज हो ही नहीं पाता। इस महान उपलब्धि के बाद लुई को फ़्रांस सरकार ने सम्मानित किया और उनके नाम से पाश्चर संसथान की स्थापना की गई। किन्तु लुई पाश्चर समाज का भला करने की धुन में खुद के परिवार का ख्याल नहीं रख पाए। जिस समय वह रेबीज के टिके की अनुसंधान कर रहे थे उसी दौरान उनकी तीन बेटियों में से दो की मौत ब्रेन ट्यूमर की बजह से हो गई और तीसरी बेटी टाईफॉएड का शिकार होकर चल बसी।

 

बच्चियों के मौत के बाद लुई पाश्चर की पत्नी को अपनी पति की सहारे की बहुत जरूरत थी। लेकिन उन दिनों लुई पाश्चर समाज की भलाई के लिए रेबीज के इलाज के लिए कई प्रयोग करते रहते थे। वह या तो समाज के भलाई के लिए समय निकाल सकते थे या पत्नी के लिए और उन्होंने समाज को चुना। अकेला पड़ जाने के कारन ही लुई की पत्नी मानसिक रोग का शिकार हो गई। थोड़े समय बाद लुई पाश्चर का आधा शरीर भी लकवाग्रस्त (Paralyzed) हो चूका था। इसके बावजूद वह अनुसंधान जारी रखे हुए थे और 1895 में 73 साल की उम्र में लुई पाश्चर की मृत्यु हो गई।

 

दोस्तों आपको यह लेख “महान वैज्ञानिक लुई पाश्चर की जीवनी | Biography of Louis Pasteur in Hindi” कैसी लगी निचे कमेंट में जरूर बताए और इस लेख को अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करे ताकि उन्हें भी इन महान वैज्ञानिक की कार्यक्रम के बारे में पता चल सके की कैसे उन्होंने खुद की और अपने परिवार की चिंता न करते हुए अपना पूरा समय मानवता की सेवा में लगा दिया।

 

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1 thought on “महान वैज्ञानिक लुई पाश्चर की जीवनी | Biography of Louis Pasteur in Hindi”

  1. Narendra Singh says:
    November 15, 2021 at 8:04 pm

    Beautiful likha h apne thanks

    Reply

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