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Hindi Story Of Miser Merchant

कृपण व्यापारी | Hindi Story Of Miser Merchant

Posted on September 30, 2020

इस कहानी का नाम है “कृपण व्यापारी | Hindi Story Of Miser Merchant” उम्मीद है आपको यह कहानी जरूर पसंद आएगी।

 

कृपण व्यापारी 

Hindi Story Of Miser Merchant

बहुत पुरानी बात है, कोशीय नामक एक व्यापारी था। उसके पूर्वज अत्यंत धनबान थे और दान देने के लिए बिख्यात थे। शहर के कई भागों में उन्होंने बीमार और गरीबों के लिए घर बनवाए थे। इसलिए पुरे राज्य में सभी उन्हें आदर भाव से देखा करते थे।

 

जब घर का मुखिया बना तो कोशीय ने सोचा, “मेरे पूर्वजों ने मेहनत से कमाए हुए धन को दान में देकर बर्बाद किया है। मैं लोगों को दान नहीं दूंगा और धन की बचत करूँगा। उसने अपने पूर्वजों दुवारा बनवाए दानघर को बंद कर दिया और कृपण बन गया।

 

भिक्षुक और दीन हीन उसके दुयार पर आकर कहते, “हे महान व्यापारी! अपने पूर्वजों की परंपरा को नष्ट मत करो, दान दो। तुम और तुम्हारा परिवार दीर्घायु होगा।”

 

किन्तु कोशीय पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसने फाटक पर पहरेदार बिठा दिए जिसमे कोई भी भीतर न आ सके। कोशीय खुद थोड़ा भोजन करता और अपने परिवार को भी कम खाने देता। फटे पुराने कपडे पहनता और पुराने रथ पर चढ़ता। इस प्रकार धीरे-धीरे उसका धन व्यर्थ होने लगा।

 

एक दिन कोशीय ने राजा की सेवा में जाने का निश्चय किया। अपने भाई को भी साथ ले जाने की इच्छा से वह उसके घर गया। छोटा भाई सपरिवार स्वादिष्ट भोजन कर रहा था। उसने कोशीय को आसन देते हुए कहा, “दादा, आइए, थोड़ा भोजन कर लीजए।”

 

सुस्वादु व्यंजन देखकर कोशीय के मुँह में पानी आ गया। उसकी खाने की प्रबल इच्छा थी पर उसने सोचा की यदि मैं छोटे व्यापारी के घर कुछ भी खाऊँगा तो मुझे भी इसे बुलाना पड़ेगा। उसमें बेकार धन बर्बाद होगा। ऐसा बिचार कर उसने भोजन करने से मना कर दिया। छोटे व्यापारी के दोबारा पूछने पर उसने कहा, “मेरा पेट भरा हुआ है। मैंने अभी अभी खाना खाया है।

 

उसने कहने को तो कह दिया पर स्वादिष्ट भोजन देखकर उसके मुँह में पानी आता रहा। भोजन समाप्त करने पर दोनों राजा से मिलने उसके महल में गए। मिलकर वापस भी आ गए पर कोशीय पुरे समय केबल सुस्वादु व्यंजन के बिषय में ही सोचता रहा। उसने फिर सोचा, “यदि मैं घर पर वह सुस्वादु व्यंजन बनाऊँ तो बहुत सारे लोग खाने के लिए आ जाएंगे। ढेर सारा अन्य, दूध. और शक्कर बर्बाद होगा। नहीं, मैं नहीं पकाऊँगा।

 

पर उसके दिमाग में सुस्वादु भोजन का बिचार ही उसे यातना देता रहा। धीरे-धीरे उसके चेहरे का रंग पीला हो गया। उसका स्वस्थ गिरता चला गया और वह बिस्तर से आ लगा।

 

एक दिन उसकी पत्नी ने पूछा, “प्रभु! आपको किस वस्तु की चिंता है? आप पिले पड़ गए हैं। क्या राजा आपसे अप्रसन्न है? या फिर पुत्रों ने आपका निरादर किया है? मुझे तो बताइए…..।”

 

व्यापारी ने कहा, “प्रिय! मेरी एक इच्छा है। क्या तुम उसे पूरा करोगी? पत्नी ने कहा, “यदि, मैं कर पाऊँगी तो अवश्य आपकी इच्छा पूरी करुँगी।”

 

कोशीय ने पत्नी से कहा, “प्रिय, कुछ दिनों पूर्व मैंने छोटे भाई को अत्यंत सुस्वादु व्यंजन खाते देखा था। तभी से मैं उसे खाना चाहता हूँ।”

 

पत्नी ने पति से पूछा, “प्रभु, क्या आप इतने निर्धन है की वह व्यंजन घर पर पकाकर नहीं खा सकते? मैं वह व्यंजन इतनी अधिक मात्रा में बताऊँगी की सारा शहर खा सके।”

 

अपनी पत्नी के उत्तर से कोशीय अत्यधिक उत्तेजित हो गया। उस पर चिल्लाता हुआ बोला, “मैं जानता हूँ तुम सम्पन्न हो। क्या तुम धन अपने पिता के पास से लेकर आई हो जो पुरे शहर को खिलाना चाहते हो?”

 

पत्नी को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। कुछ सोचकर उसने कहा, “फिर मैं इतना ही व्यंजन बताऊँगी जितना हमारे पड़ोस के लिए पर्याप्त हो।”

 

कोशीय ने फिर कहा, “तुम्हे अपने पड़ोसियों से क्या लेना देना है? वे अपने घर में पका सकते हैं।”

 

पत्नी ने कहा, “फिर मैं इतना ही बताऊँगी जो हमारे बगल के साथ घरों के लिए ही पर्याप्त हो।”

 

कोशीय ने पूछा, “तुम्हे उनसे क्या लेना-देना है?”

 

पत्नी ने कहा, “फिर मैं उतना ही पकाऊँगी जितना हमारे परिवार के लिए पर्याप्त हो।”

 

कोशीय ने फिर खीझा, तुम्हे उन सबसे क्या लेना देना है?”

 

पत्नी ने कहा, “तब मेरे प्रभु! फिर मैं मात्र अपने और आपके लिए पकाऊँगी। कोशीय अभी भी पत्नी से असहमत होता हुआ बोला, “तुम कौन हो? तुम क्या कर खाओगी?” अंत में पति ने कहा, “तब प्रभु!

 

कोशीय ने उससे कहा, “तुम मेरे लिए मत पकाओ। यदि व्यंजन बनेगा तो कई लोग उसे खाने की चाहत रखेंगे। तुम मुझे बस थोड़ा सा अन्य, चीनी और दूध दे दो। मैं जंगल जाकर, पकाकर वहीँ खा लूंगा।

 

व्यापारी की पत्नी ने उसे सभी सामग्रियाँ दे दी। व्यापारी ने गुप्त बेश धारण कर, एक सेवक के साथ सारी सामग्रियाँ लेकर चुपचाप वन की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुँचकर, एक बड़े पेड़ के निचे चूल्हा बनाया और उस सेवक को आग जलाने के लिए सुखी लकड़ियाँ लाने भेजा। लकड़ियाँ लेकर आने पर उसने सेवक से कहा, ‘अब तुम जा सकते हो। सड़क के किनारे मेरी प्रतीक्षा करना। यदि तुम किसी को इस ओर आते हुए देखो तो मुझे बताना। जब मैं तुम्हे बुलाऊँ तभी आना।”

 

इस प्रकार कोशीय ने वन में स्वादिष्ट व्यंजन बनाया। इंद्रदेव इन सब के प्रत्यक्षदर्शी थे। उन्हें लगा की व्यापारी के पूर्वजों की साख और परंपरा दोनों ही खतरे में है। अपनी कृपणता के कारण न तो व्यापारी खुद खाता है और न ही दूसरे को दान देता है। इंद्रदेव ने कुछ ब्राह्मणों को गरीबों के बेष में कोशीय के पास भेजा। पांच भिक्षुओं ने आकर उससे पूछा, “शहर जाने का रास्ता किस तरफ है?”

 

कोशीय ने कहा, “क्यों! क्या तुम शहर का रास्ता भी नहीं जानते हो? उस ओर जाओ।”

 

किन्तु भिक्षुक उलटे कोशीय की ओर निकट आने लगा। कोशीय चिल्लाया , “क्या तुम सब बहरे हो? मेरी ओर क्यों आ रही हो? उस ओर जाओ, वही रास्ता शहर की ओर जाते है।”

 

भिक्षुक ब्राह्मणों ने कहा, ‘तुम चिल्ला क्यों रहे हो? यहाँ हमें आग और धुआँ दिख रहा है। खुशबु से लगता है की खीर पक रही है। भोजन का समय है और हम लोग ब्राह्मण है। हमें भी भोजन करना है।”

 

कोशीय ने उन्हें मना करते हुए कहा, “मैं यहाँ कोई ब्राह्मण भोज नहीं करवा रही हूँ। यहाँ से चले जाओ। मैं अन्य का दाना भी नहीं दूंगा। मेरे पास बहुत ही थोड़ा भोजन है अपना भोजन कहीं और जाकर ढूंढो।”

 

एक ब्राह्मण भिक्षुक ने कोशीय की ओर देखा और कहा, “हे कोशीय! अल्प हो तो अलप दो, सीमित हो तो सीमित दो, ढेर हो तो ढेर दो। कुछ भी नहीं देना सही नहीं है। उदारतापूर्वक दो और अच्छे से खाओ। उत्तम रास्ते पर चलो। अकेले खाने से तुम्हे कभी भी प्रसन्नता नहीं मिलेगी।

 

उसकी बात सुनकर कोशीय का मन बदल गया। उसने सभी ब्राह्मण भिक्षुओं को सुस्वादु व्यंजन परोसा। विस्मयकारी ढंग से, ब्राह्मणों के जी भरकर खाने के पश्चात भी सुस्वादु व्यंजन की मात्रा में कोई कमी नहीं आई। कोशीय को बहुत अचरज हुआ। ब्राह्मणों ने कहा, “कोशीय, हम यही तुम्हारे व्यंजन खाने नहीं आए है। तुम्हारे पूर्वज अत्यंत दानी थे। तुम कृपण, क्रोधी और पापी हो गया होगा।”

 

ब्राह्मणों से ज्ञान पाकर कोशीय घर वापस आया , उसने फिर दानघर का जीर्णोंद्धार कराया और पूर्वजों के परोपकार की परंपरा का अनुसार करने लगा।

 

शिक्षा: दान से बिपुलता आती है 

 

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