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सर्वोत्त्म उपहार | Hindi Story Of Best Gift

Posted on July 23, 2020

Hindi Story Of Best Gift

 

सर्वोत्त्म उपहार

 प्रसन्ना शिवि आरित्यापुर का राजा था। वह अत्यंत दयालु था। उसने छः दान-घर अलग-अलग जगहों पर बनबाए थे। शहर के चारों दरवाजों पर एक एक दान-घर था, एक शहर के बीचोबीच था और एक महल के प्रमुख दरवाजे पर था। इन्ही दान-घरों से वह गरीबों को दान दिया करता था। 
पूर्णिमा का दिन था। राजा राजगददी पर बैठा-बैठा सोचने लगा, “ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो मैंने दान में नहीं दी हो, फिर भी मैं संतुष्ट नहीं हूँ। मैं व्यक्तिगत रूप से कोई उपहार देना चाहता हूँ। आज यदि दान-घर में कोई आकर कोई व्यक्तिगत उपहार मांगे तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी। यदि कोई मेरा दिल मांगे तो मैं वह भी देने के लिए तैयार हूँ। यदि कोई मेरी आंखे मांगे तो वह भी देने में नहीं हिचकूँगा। कोई भी मानव उपहार ऐसा नहीं है जिसे मैं दे न सकूँ।”
राजा अपने सजे हुए हाथी पर बैठकर, दान-घर के लिए चला। इन्द्र भगवान ने राजा पर दृष्टि रखी हुई थी। उन्होंने सोचा, “राजा शिवि याचक को अपनी आँखे देने की इच्छा रखता है…क्या सच में वह ऐसा कर सकता है?”
इन्द्र भगवान ने राजा शिवि की परीक्षा लेने का निर्णय किया। उन्होंने एक अंधे ब्राह्मण का रूप धरा। राजा शिवि जब अपने दान-घर जा रहे थे तभी ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने हाथी के समुख आकर राजा का अभिवादन किया। शिवि ने हाथी को रोककर पूछा, “हे ज्ञानी ब्राह्मण! आपको क्या चाहिए?”
ब्राह्मण ने उत्तर दिया, “महाराज, आपके दान की महिमा संपूर्ण विश्व में फैली हुई है। मैं अंधा हूँ। मैं आपसे एक आँख दान में देने की याचना करता हूँ जिससे हम दोनों कम से कम एक आँख से संसार देख सकें। 
राजा को हार्दिक प्रसन्नता हुई। उसने अपने मन में सोचा, “अपने महल में बैठा हुआ मैं यही तो चाह रहा था। आज मेरी इच्छा पूर्ण हो गई। आज मैं ऐसा उपहार दूँगा जो मैंने पहले कभी नहीं दिया है।”
राजा ने ब्राह्मण से कहा, “हे ब्राह्मण! यह तो मेरे लिए सम्मान की बात है। एक आँख क्यों? मैं अपनी दोनों आँखे दे सकता हूँ।”
राजा ने राजबेद्य को बुलाया और कहा, “यह दान न तो मैं पुत्र, धन, यश, प्रभुत्व या राज्य के लिए करता हूँ। मैं जैसा आपसे कहूँ आप वैसा ही करें। मेरी एक आँख को निकालकर कृपया इस अंधे ब्राह्मण को दे दें।”
राजा की बात सुनकर राजबेद्य को बहुत झटका लगा। उन्होंने राजा से कहा, “महाराज, नेत्र-दान कोई मामूली बात नहीं है। कृपया आप पुनर्विचार करें।”
दृढ़ निश्चयी राजा ने कहा, “मैंने इस बात पर बहुत विचार कर लिया है। आप देर न करें।”
राजबेद्य ने कुछ जड़ी बूटियों को पिशकर चूर्ण तैयार किया। उस चूर्ण को नीले कमल में रखा और फुँफकर थोड़ा सा चूर्ण राजा के दाहिनी आँख में डाला। आँखों में दर्द हुआ और आँखे गोल-गोल घूमने लगीं। राजबेद्य ने फिर राजा से कहा, “महाराज, आपके पास अभी भी सोचने के लिए समय है। मैं अभी इसे ठीक कर सकता हूँ।”
राजा ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा, “मित्र, आप देर न करे, अपना काम करें।”
राजबेद्य ने फिर थोड़ा चूर्ण राजा की आँख में डाला। आँख में असहनीय पीड़ा हुई और आँख गड्ढे के बाहर निकल आई। राजबेद्य ने फिर राजा से कहा, “महाराज, कृपया पुनर्विचार करें, मैं अभी भी ठीक कर सकता हूँ।”
राजा ने जोर देते हुए कहा, “शीघ्र करें, देर न करें। “
एकबार फिर से राजबेद्य ने राजा की आँखों में चूर्ण डाला। इस बार आँख गड्ढे से एक नस के सहारे लटकने लगी। “महाराज, आपके पास अभी भी पुनर्विचार करने का समय है। मैं अभी भी वापस ठीक कर सकता हूँ…”- राजबेद्य ने कहा। 
राजा ने असहनीय पीड़ा को सहते हुए कहा, “नहीं, देर मत करें। राजा की स्तिथि देखकर रानी और मंत्री ने विलाप करते हुए राजा के पैर पकड़ लिए और कहा, “महाराज, नेत्रदान न करें।”
राजा ने दर्द सहते हुए राजबेद्य से कहा, “कृपया शीघ्र काम पूरा करें।”
राजबेद्य ने बायें हाथ से आँख पकड़ी और दाहिने हाथ से चाकू लेकर नस काटकर, उसे अलग कर, राजा के हाथ में दे दिया। अपना दर्द बर्दाश्त करते हुए राजा ने नेत्र ब्राह्मण को देकर कहा, “हे ब्राह्मण! मैं नेत्र से अधिक परम ज्ञान को चाहता हूँ। इस नेत्र दान को, परम ज्ञान के नेत्रों को पाने का कारण बनने दें।”
ब्राह्मण ने राजा से नेत्र को पाकर अपनी आँख के गड्ढे में बैठा लिया। वह आँख खिले हुए नील कमल की भांति लग रही थी। राजा शिवि ने अपनी एक आँख से ब्राह्मण को देखा और कहा, “आह! मेरा नेत्र-दान सफल हो गया।”
तत्पश्चात उन्होंने अपना दूसरा नेत्र भी ब्राह्मण को दान में दे दिया। नेत्र पाकर ब्राह्मण ने उसे भी अपने दूसरी आँख में बैठा लिया और महल से चला गया। राजमहल में उपस्थित सभी लोग मूक बने उसे देखते रह गए। 
इस महान दान के पुण्य से राजा शीघ्र ही स्वस्थ होने लगे। उनकी आँखों के गड्ढे भर गए। दर्द समाप्त हो गया। कुछ दिनों तक महल में रहने के पश्चात उन्होंने सोचा, “एक अंधे व्यक्ति को शासन से क्या लेना देना? मैं एक भिक्षुक बनकर तपस्वी का जीवन जीऊँगा।”
राजा ने मंत्रियों की सभा बुलाई और उन्हें अपना निर्णय सुनाया। राजा को पालकी में बैठाकर एक उद्दान में लाया गया और एक सरोवर के किनारे बैठा दिया गया। एक सहायक राजा की सेवा के लिए नियुक्त कर दिया गया। राजा ध्यानमग्न होकर बैठ गए और अपने दान के बिषय में विचार करने लगे। राजा के पुण्य कर्मो से इन्द्र का आसन हिल उठा। इंद्रा उस उद्दान में प्रकट हुए। उनकी पदचाप सुनकर राजा ने पूछा, “कौन है वहाँ?”
इन्द्र भगवान ने कहा, “मैं इन्द्र भगवान हूँ! मैं तुम्हारे पास आया हूँ। बोलो तुम्हे क्या चाहिए?”
प्रसन्न होकर राजा ने कहा, “हे भगवान! मेरे पास सब कुछ है। पर्याप्त मात्रा में धन और सेना है। इस अंधे को और अधिक कुछ नहीं चाहिए।”
इन्द्र भगवान ने फिर कहा, “हे महान राजन! दान का प्रतिदान उसी जन्म में प्राप्त होता है। आप सत्य-क्रिया करें। आपके आँखे आपको फिरसे प्राप्त हो जाएंगे।”
राजा के सत्यवचन से उनकी एक आँख ठीक हो गई। फिर उन्होंने दूसरा वचन कहा, “एक अंधे ब्राह्मण ने जब मुझसे याचन करी तब मैंने अपने नेत्र उसे दे दिए। उस समय मैं प्रेम और आनन्द की भावना से ओतप्रोत था। यह सत्यवचन मेरी दूसरी आँख ठीक करें।”
तुरंत ही राजा की दूसरी आँख भी ठीक हो गई। उनकी नई आँखे दिव्य नेत्र के रूप में जानी गई। मंत्रियों की सभा हुई। राजा के नेत्र वापस आ गए हैं यह खबर पुरे राज्य में फैल गई। उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ इकटठी हो गई। महल के प्रमुख दुवार पर विशाल सामियाना लगाया गया। 
चंदन के महल में, सफेद मंडप के निचे बने सिंहासन पर राजा बैठे थे। उन्होंने घोषणा करी, “शिवि के राज्य के लोग मेरी आँखे देखे। कोई भी ऐसा धन नहीं है जिसे न दिया जा सके। प्रतिदिन भोजन करने से पूर्व आप सभी कुछ न कुछ अवश्य दान किया करें।” शिवि के  लोगों ने तभी से दान देना तथा कल्याणकारी दूसरे कार्य अपने जीवन में करना प्रारम्भ कर दिया। 
शिक्षा: जीवन में दान से बढ़कर और कुछ भी नहीं है। 
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